रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स भारतीय पत्रकारिता को एक गंभीर स्थिति में बताता है। जहां इसके अंतर्गत होने वाले वार्षिक विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 180 देशों में से 159वें स्थान पर है, वहीं यह संस्था भारत को उन 31 देशों में शामिल करती है, जहां पत्रकारिता एवं पत्रकारों के लिए स्थिति या तो बेहद गंभीर या चिंताजनक बताई गई है। हालांकि, ज्यादातर लोग इस बात से मुंह मोड़ते दिखेंगे। लेकिन हम माने या न माने, यह सर्वेक्षण कहीं न कहीं वास्तविकता को बयां करता है और यह विशेष चर्चा का विषय भी होना चाहिए। अब सोचने वाली बात है कि आखिर भारतीय पत्रकारिता की इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है? क्या कुछ ऐसे आयाम भारतीय पत्रकारिता में शामिल हो गए हैं, जिनके कारण हमारे पत्रकार बेबाकी से सच कहने से डरते हैं? ऐसे कुछ सवालों का जवाब हमें तमाम आंकड़ों और सर्वेक्षणों से बढ़कर हमारा ही समाज दे देता है। इसके लिए सबसे पहले हमें भारतीय पत्रकारिता और भारतीय समाज के बीच संबंध को समझना होगा।
दरअसल, भारतीय पत्रकारिता और भारतीय समाज का रिश्ता जरूरत की नींव पर बना। जब भारत में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता संग्रामों की लहर दौड़ पड़ी, तब समाज ने अंग्रेजों के खिलाफ पत्रकारिता को एक हथियार के रूप में देखा। जहां समाज अपने विचार मुताबिक पत्रकारिता को आकार देने लगा। सरल शब्दों में, रोज जो जानकारियां और मत अखबारों तथा रेडियो में लिखे या बोले जाते, वे समाज के मत से होकर जाते। कुल मिलाकर, यह समाज ही था जिसने भारतीय पत्रकारिता को जन्म दिया और उसे दमन के खिलाफ और सबसे महत्वपूर्ण, सच के साथ खड़े रहने का हौसला दिया। लेकिन भारत को आजादी मिलने तक, क्योंकि इसके बाद भारतीय पत्रकारिता की तस्वीर और उसकी तकदीर दोनों बदल गईं। भारत में होने वाली पत्रकारिता की करनी और कथनी में फर्क दिखने लगा। दरअसल, आजादी के बाद जब हम एक नए समाज का निर्माण कर रहे थे, तब कुछ राजनीतिक और सामाजिक तबके, जो अपना वर्चस्व कायम रखना चाहते थे, उनके कारण समाज में वर्गीकरण जैसे घटकों का विकास होने लगा। जैसा कि समाज के नक्शेकदम पर भारतीय पत्रकारिता सदैव चलती आई है। परिणामस्वरूप भारतीय पत्रकारिता भी बदले समाज में, जो कि कुछ अनैतिक घटकों से ग्रस्त हो गया था, इसकी चपेट में आ गई।
यहां बात थोड़ी पेचीदा है, लेकिन समझने पर आसानी से समझा जा सकता है। सरल शब्दों में कहा जाए, तो सदैव ही हम और हमारा समाज पत्रकारिता में समय-समय पर बदलाव लाने और करने के जिम्मेदार रहे हैं। आज जिस पत्रकारिता को हम देखते और सुनते हैं, वह इसी बदले हुए समाज का परिणाम है। अक्सर हम भारतीय पत्रकारिता में स्वार्थ होने और इसमें लालसा जैसे अवगुणों के विस्तार को इसकी वर्तमान स्थिति का जिम्मेदार बताते हैं। यहां तक कि भारतीय पत्रकारिता सच दिखाना कम और कमाना ज्यादा बेहतर समझती है। जिसे सत्य का हितैषी होना चाहिए, वे असत्य का हिमायती ज्यादा बन गए हैं। ऐसे बयानों का सहारा लेकर अपनी करनी छिपाकर उसे कई व्यंग्यात्मक लहजों से संबोधित करते हैं। लेकिन कभी नहीं मानते कि इस स्थिति के जिम्मेदार हम खुद हैं। वह बात अलग है कि आज भी हम पत्रकारिता को उसकी जगह देते हैं। उसे दबी हुई आवाज़ों को उठाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। लेकिन सवाल है, किन प्राथमिकताओं के साथ? यही कारण है कि भारतीय पत्रकारिता में आज जटिल स्थितियां बनी हुई हैं।
पत्रकारिता समाज का वह हिस्सा है, जिसका अस्तित्व ही समाज से है और रहेगा। यानी जैसा समाज, वैसी पत्रकारिता और इसमें कोई संदेह नहीं है। आज हमारा समाज जिस सोच के साथ आगे बढ़ रहा है, वहां होने वाली पत्रकारिता से क्या ही उम्मीद की जा सकती है। भारतीय पत्रकारिता आज इन्हीं नक्शेकदमों पर ही तो अपनी कार्रवाइयां कर रही है। आज भारतीय पत्रकारिता किसी एक विशेष समुदाय पर बात करती है। किसी एक वर्ग को केंद्र में रखकर काम करती है। इन सबका कारण हमारा समाज ही है।
यह बात कड़वी जरूर है, लेकिन इसे स्वीकार न करना नाइंसाफी होगा। भारतीय पत्रकारिता का इतिहास जेम्स ऑगस्टस हिकी के अखबार से भी बहुत पुराना है, जिसका उल्लेख हमारे पुराणों में मिलता है। लेकिन आज के जमाने से बिल्कुल भिन्न, जो कई खेमों में बंट चुका है। खैर, आज के जमाने से इतिहास में होने वाली पत्रकारिता से क्या ही तुलना करना। इस पर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। आज संक्षेप में बात करें, तो हाल ही में रिलीज हुई फिल्म “साबरमती रिपोर्ट,” जो इन दिनों काफी सुर्खियां बटोर रही थी, भारतीय पत्रकारिता पर तंज कसती दिखी। हालांकि, ऐसे कई उदाहरण हैं, जो भारतीय पत्रकारिता की कार्यशैली पर तंज कसते हैं। लेकिन “साबरमती रिपोर्ट” एक खास उदाहरण है, जो कि वास्तव में गोधरा कांड पर आधारित है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ यानी भारतीय पत्रकारिता की वास्तविक तस्वीर से समाज को रूबरू करवाती है और उसमें समाज की क्या भूमिकाएं हैं, इसका बोध कराती है। “साबरमती रिपोर्ट” वास्तविकता में दो प्रकार की पत्रकारिता दर्शाती है। एक वह पत्रकारिता जो समाज तथा शक्ति के सानिध्य में रहकर लोगों को जागरूक करना कम और मौद्रिक लाभ लेना ज्यादा बेहतर समझती है और एक वह पत्रकारिता, जो शक्ति तथा समाज की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों को समझकर लोगों को सच और झूठ से रूबरू कराती है। यहां इन दो तरह की पत्रकारिता को दिखाकर यह फिल्म एक बात तो साफ करती है कि जिस प्रकार से एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी प्रकार से भारतीय पत्रकारिता के भी दो पहलू हैं। कुल मिलाकर, यह कहना उचित होगा कि समस्त भारतीय पत्रकारिता सामाजिक परिप्रेक्ष्य में पक्षपातपूर्ण नहीं है। एक तबका ऐसा भी है जो अपनी जिम्मेदारियों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करता है, समाज के सामने सच को निडरता से रखकर आम जन को सच का आईना दिखाता है।
पत्रकारिता लोक सेवा का वह साधन है, जिसे लोगों को उनके अधिकारों का बोध और उन्हें अपनी दिक्कतों को जटिलताओं से ग्रस्त समाज में सामने रखने का अवसर देना चाहिए। लेकिन आज भारतीय समाज में व्याप्त कुछ सीमाएं और तत्व इसे जकड़े हुए हैं। जिसके परिणामस्वरूप आज भारतीय पत्रकारिता बंधकर काम कर रही है और पत्रकारिता के सिद्धांतों तथा उसके मानकों को अपनाने से कतराती है। इस समय भारत को नैतिक पत्रकारिता की आवश्यकता है, जो कि समाज द्वारा तमाम प्रतिबंधों और प्रावधानों की मौजूदगी में संभव नहीं हो सकता। जिस प्रकार पत्रकारिता को समाज का आईना कहा जाता है, हमारे समाज को आज यह समझना होगा कि इन प्रतिबंधों के होते हुए वह पत्रकारिता से यह कतई उम्मीद नहीं कर सकता कि वह उसे उसका सही प्रतिबिंब दिखाएगी। यानी अगर समाज को विकास की राह पर चलना है, उसे वास्तविकता से मुखातिब होना है, तो उसे इन खामियों से निजात पाना होगा और पत्रकारिता को सच्ची पत्रकारिता करने का अवसर देना होगा। आज जिस प्रकार से रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा भारत में होने वाली पत्रकारिता को गंभीर बताया जा रहा है, उसका समाधान और जवाब यही है कि हमारा समाज इस बात को गंभीरता से समझकर देश में सच्ची पत्रकारिता को प्रोत्साहित करे। यह न सिर्फ भारत को अच्छी पत्रकारिता के लिए एक उम्दा उदाहरण बनने का मौका देगा, बल्कि जो आंकड़े आज हमारे सामने हैं, उन्हें बदतर होने से बचाएगा। यही एकलौता समाधान और भारतीय पत्रकारों तथा उनकी पत्रकारिता को अक्षुण्ण बनाए रखने का उपाय है।
Team Profile
- Nikhil Rastogi, a dynamic Journalist and Media enthusiast with a strong foundation in journalism. After graduating in Mass Communication from the Institute of Mass Communication and Media Technology, Kurukshetra University, Kurukshetra, he is currently pursuing his Master's in Journalism and Mass Communication from University of Lucknow. His passion for storytelling is evident from his regular contribution of informative articles to various media outlets. He has also contributed as a writer and journalist for reputed media organisations like Amar Ujala, Jansatta and The Pioneer.
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