क्या बंगाल चुनाव हिंसा का पर्याय बन चुका है ?
एक बार फिर बंगाल पंचायती चुनाव रक्तरंजित हुआ।
बीते शनिवार को बंगाल में एक बार फिर से पंचायती चुनाव में हिंसा, झड़प, आगजनी देखने को मिला, जिसमें अभी तक के सरकारी आकडों के अनुसार 13 लोगों की मौत हो चुकी है। इसमें सभी पार्टियों जैसे- तृणमूल कॉंग्रेस, बीजेपी, कॉंग्रेस, वाम दल के लोग शामिल हैं।
हिंसा राज्य के सात जिलों में हुई है, जिसमें मुर्शिदाबाद में 2, कूचबिहार और दिनहाटा में 2, मालदा व पूर्व बर्दवान में भी 2-2 लोग तथा नदिया जिले में भी 2 लोगों की मौत की पुष्टि की गई है। इसके अलावा दिनाजपुर में 1 दर्जन लोग के घायल होने की खबर ह।
इसी के मद्देनजर कोलकाता उच्च न्यायलय ने 6 जुलाई को ही केंद सरकार से सुरक्षा कर्मियों की 882 कंपनियों की मांग कर दी थी और साथ में यह भी कहा था कि सुरक्षाकर्मी चुनाव के दस दिनों
बाद तक राज्य में रहेंगे। परंतु सरकार ने केवल 660 कंपनियां ही भेजी। हिंसा की एक वजह ये भी बताई जा रही है कि अगर पूरी गंभीरता से इस विषय को लिया गया होता और जितनी मांग थी उतनी बटालियन आती तो शायद ये नहीं होता।
हिंसा का इतिहास– बंगाल चुनाव में हिंसा कोई नया नहीं है। इसकी एक परंपरा सी चली आ रही है। सरकारी आकड़ों के अनुसार 2003 में 70, 2008 में 36, 2018 में 10 लोगों की मौत पंचायती चुनाव में हिंसा के कारण हुई हैं। गाहे बगाहे विधानसभा हो या लोकसभा सभी चुनावों में हिंसा एक तरह से अनिवार्य हिस्सा बन चुका है।
क्यों महत्वपूर्ण है पंचायती चुनाव?– बंगाल पहला राज्य है जिसने 1978 में देश में पहली बार त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था लागू की। उस समय राज्य में वाम दल की सरकार थी।
धीरे धीरे ये चुनाव पार्टियों द्वारा अपने आप को और मजबूत करने का साधन बन गया, उसके बाद पार्टियों ने अपने सिंबल पर चुनाव लड़ाना प्रारंभ कर दिया।
बाद के दिनों में पंचायत के विकास के लिए करोड़ों रुपए आवंटित होने लगे । एक -एक ग्राम पंचायत के लिए पाँच साल में लगभग 18 करोड़ तक के विकास फंड आते हैं, जिसका अधिकार पंचायत समिति के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष के पास होता है।
केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली राशि इस प्रकार है 20-21 में 4421 करोड़ तथा 2021-22 में 3261करोड़ और अगले चार साल के लिए भी राशि लगभग इसी प्रकार से है । इन सब कारणों से भी चुनावों में इतनी सक्रियता हो सकती है।
-अजय राज द्विवेदी