महाकुंभ की भगदड़: इंसानियत के नाम पर सियासत और व्यवस्था की नाकामी

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महाकुंभ की भगदड़: इंसानियत के नाम पर सियासत और व्यवस्था की नाकामी

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प्रयागराज में महाकुंभ में हुई भगदड़ में एक बार फिर इंसान की इंसानियत का नज़ारा देखने को मिला। कुछ ने लोगों के शवों को कुचलकर, कुछ ने अपनी माँ तो कुछ ने अपने पिता को कुंभ में छोड़कर, कुछ ने (राजनेताओं) अपना पाप छुपाकर, तो कुछ ने (प्रशासन) श्रद्धालुओं को मरता छोड़कर अपनी इंसानियत का प्रमाण दिया।

राजनेताओं की बात करें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि इन्हें आम आदमी की भावनाओं से खेलना, अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जाना, धर्म के नाम पर लोगों को बाँटना ही आता है, जो साबित करता है कि राजनेता चंद भर की इंसानियत नहीं रखते।

आज का इंसान खुद को बचाने के लिए दूसरे की जान तक लेने को तैयार है। जो प्रयागराज के महाकुंभ में हुआ, वह एक सबक है, विशेष तौर पर उन लोगों के लिए, जो आँखें मूँदकर इन राजनेताओं के पीछे चलते हैं, इस उम्मीद से कि उनका राजनेता उनकी रक्षा करेगा, लेकिन इन रक्षकों को भक्षक बनते देर नहीं लगती।

यही राजनेता धर्म के ठेकेदार बनकर एक धर्म को दूसरे धर्म से लड़वाने, “हिंदू खतरे में हैं” जैसी अफ़वाह फैलाने का काम करते हैं। इतना ही धर्म का ठेका लेते हैं तो अब क्या हुआ? क्यों सनातन का चोला ओढ़ने वालों के पास कोई जवाब नहीं है? क्यों नहीं बचा पाए श्रद्धालुओं की जान और क्यों अपना पाप छुपाए घूम रहे हैं?

जनता को जागने की जरूरत है, आँखों से धर्म के नाम पर बाँटने वालों का पर्दा हटाने की जरूरत है। जी हाँ, यह सच्चाई है कि आज का इंसान अत्यधिक क्रूर और मतलबी हो चुका है, जिसे अपनी शोहरत, अपने रुतबे और अपने बचाव के आगे कुछ नज़र नहीं आता।

आज फिर उन मुस्लिम भाई-बहनों ने श्रद्धालुओं के लिए अपने दरवाजे खोलकर सभी राजनेताओं के मुँह पर कड़ा तमाचा मारा है।

उठो जनता, अभी भी वक्त है। उठो… इस भ्रम से कि ये नेता आपके हितकारी हैं, उठो… इस गलतफ़हमी से कि ये नेता आपके बारे में सोचते हैं, आपके हित में काम करेंगे या आपकी रक्षा करेंगे। जो काम अंग्रेजों ने किया था—हिंदू-मुसलमान के बीच दरार पैदा करने का—क्या यही काम नेता नहीं कर रहे?

भगदड़ के समय तो प्रशासन संभाल नहीं पाया, या यूँ कह लो कि संभालना नहीं चाहा और उसके बाद भी लोग मारे-मारे फिर रहे हैं, अपनों को खोजते हुए, इस उम्मीद में कि बस मिल जाएँ, जिस भी हाल में हों—जिंदा या मुर्दा। अफ़सोस की बात यह है कि प्रशासन से सम्मान के साथ मृतक श्रद्धालुओं के शव भी लौटाए नहीं जा रहे हैं। लोग प्रशासन से अपने इंसान होने की गुहार लगा रहे हैं, जो कि इन्हीं की लापरवाही की वजह से आज इस दुनिया में नहीं हैं।

विडंबना यह है कि जहाँ 40 करोड़ से ज्यादा श्रद्धालुओं की व्यवस्था का आश्वासन दिया गया था, वहीं जब मौनी अमावस्या के स्नान करने आए मात्र 10 करोड़ श्रद्धालु, तो उनका सामना किस स्थिति से हुआ, इसे बयां करने के लिए कोई शब्द नहीं हैं।

इस दुनिया में सिर्फ पैसे या पैसों वालों की ही अहमियत है, और इसका प्रमाण दिया वीआईपी संस्कृति ने।

आखिर कैसे किसी के प्राण इतने सस्ते हो सकते हैं? या यूँ कह लो कि इंसानियत वाले इंसान की इस दुनिया में कोई जगह नहीं।

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अंशिका गौड़News Writer & Columnist
अंशिका गौड़, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली से मास मीडिया में एम.ए. की छात्रा है। उन्होंने I.F.T.M विश्वविद्यालय, मोरादाबाद, उत्तर प्रदेश से स्नातक में पत्रकारिता, कला स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

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